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Ashish Shukla Sajal

मेरी किताबें घूमती हैं…

गुलज़ार साहब की किताबें झांकती हैं, रविश कुमार की करवटें बदलती हैं और मेरी किताबें घूमती हैं। जी हां, मेरी किताबें घूमती हैं। मेरे साथ। मेरे घर में, यहां-वहां ,जहां-तहां। कभी कमरें के इस कोनें से उस कोनें में, तो कभी बिस्तर के चारों ओर। मेरे साथ, मेरे बैग में भी काफ़ी दिनों तक घूमती हैं, मेरी किताबें। बहुत दिन तक बैग में रहती हैं। कई मर्तबा तो 2-3 किताबें एक साथ बैग में घूमती हैं। उसमें से तो कुछ खत्म होने के बाद भी साथ रहती हैं, तो कुछ की शुरुआत भी नहीं हुई इसलिए रहती हैं। कभी-कभी तो मैं भी भूल जाता हूँ कि किसे साथ में लेकर घूम रहा हूँ। बस जब वे थक जाती हैं, तो ठहर जाती हैं और सुस्ताती हैं, मेज की ओट में। अगर मैं यह कहूँ कि मुझे किताबें पढ़ने का शौक है, तो अब यह गलत होगा। सच तो यह है कि मुझे किताबें ख़रीदने और उनको रखने का शौक है। वैसे ख़रीदता सिर्फ पढ़ने के लिए ही हूँ, लेकिन अब उतनी मोहब्बत से पढ़ नहीं पता, जितनी मोहब्बत से लेकर आता हूँ।

एक समय था जब हम भी किताबी कीड़े हुआ करते थे। रात की एक बैठक, तीन कॉफी और 122 गानों में 400 पन्नों को नाप लेते थे। पढ़ता तो आज भी उसी शिद्दत से हूँ, पर खत्म कम ही कर पाता हूँ। कुछ के आखिरी पन्ने बचे हैं, तो कुछ को आधा पढ़ कर उसकी आगे की कहानी खुद ही बुनना शुरू कर देता हूँ। किताबों से ये आशिक़ी कोई नई नहीं है, ना ही आशिक़ी के दिनों में लगी। ये तो हमेशा से साथ थी। असली आशिक़ रहे, तो बस किताबों के। नस काटने और थप्पड़ खाने वाले आशिकों से भी ज्यादा इश्क़ हमनें किताबों से किया। महबूबा के परफ्यूम से ज्यादा हम किताबों की खुशबू के दीवाने रहे। ना बेवाफाई की, ना साथ छोड़ा। बस अभी कुछ दिनों से रोटी की जुगाड़ ने इस मोहब्बत से ज़रा दूर कर दिया है। नज़रें और कदम आज भी थम जाते हैं, किताब की दुकानों को देखकर। फिर वे चाहे फुटपाथ पर लगी हो, या शीशमहल में सजी हों। दरअलस मुझे किताबें आकर्षित करती हैं। उनके वे कवर पेज, कवर में बनी फ़ोटो, बोल्ड बॉर्डर में लिखें हुए नाम और चंद लाइनों में पूरी किताब का नक्शा बता देने वाले वे दो पैराग्राफ। हाय……दिल लूट कर ही ले जाते हैं।

अपनी इस मोहब्बत से दूरी ज़रूर बन गई है, लेकिन साथ नहीं छूटा है। किसी ने नही छोड़ा है साथ। ना किताबों ने मुझे छोड़ा, ना मैंने किताबों को। तभी तो वे मेरे साथ घूमती हैं। मेरे बैग में, मेरे कमरे में, मेरी हम-बिस्तर हो कर मेरे साथ सोती हैं, तो कभी मेज़ की ओट से गुस्से में लाल हो घूरती हैं कि, ‘तुम्हे मुझे छोड़ सारी दुनिया के खातिर समय है, कभी मेरे बारे में भी सोचो। कितने दिनों से यहां पड़े पड़े इंतजार कर रही हूं कि आज रात आओगे, तो कुछ बातें करेंगे और रात को तुम्हारे सीने से लग के सो जाएंगे, लेकिन तुम हो कि आते ही मोबाइल में घुस जाते हो’।

ये शिकायत आजकल मेरे घर मे रखी ज़्यादातर किताबें करती हैं। कमरें के बाहर रखी कुछ की शिकायत तो कम हुई है, लेकिन अलमारी में रखी हुई किताबें हर रोज़ शिकायत करती हैं। अगर किसी दिन प्रेस की हुई शर्ट पहनने के लिए अलमारी खोल दी, तो सभी एक साथ बोल पड़ती है, ‘दुष्ट… क्यों हमें अपने साथ लेकर आए, जब प्यार करने का समय नहीं था, और जब लाए, तो ऐसे अनाथों की तरह अकेले क्यों छोड़ दिया? शुरू-शुरू में इतनी मोहब्बत दिखाई कि हमें भी हर शाम कॉफी की महक और पुराने गीतों की आदत हो गई. पर अब तो हर शाम इस आलमारी के अंधेरे में बीत जाती है। भला ऐसे भी कोई प्यार करता है, आधा-अधूरा.. बताओं ‘वह इश्क भला क्या इश्क हुआ, जो बीच में छोड़ दिया जाए….

मेरा और इन किताबों का रिश्ता बस ऐसा ही है। वे गुस्सा होती हैं, मैं अक्षरों पर प्यार से हाथ फेर के उन्हें मना लेता हूँ, वे चिढ़ जाती हैं, तो हाथों में लेकर घुमा देता हूँ। बस ऐसे ही वे घूमती हैं. कभी मेरे साथ, तो कभी अकेले ही कमरे में इधर से उधर। बस कभी छोड़ कर नहीं जातीं।


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