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Teji Grover

“पूरा हो चुका चाँद” – तेजी ग्रोवर की कविताएँ!

पंजाब में जन्मी तेजी ग्रोवर के पांच कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध संग्रह और आधुनिक नोर्वीजी, स्वीडी, फ्रांसीसी साहित्य से तेरह पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित हैं. उनकी प्रमुख कृतियों में उपन्यास ‘नीला’, कविता संग्रह ‘अंत की कुछ और कविताएं’, ‘लो कहा सांबरी’, ‘दर्पण अभी कांच ही था’, ‘घास ढंकी पगडंडियां’, स्वीडी कविताएं ‘बर्फ़ की ख़ुशबू’, दस समकालीन नोर्वीजी कहानियां तथा नीलाघर और दूसरी यात्राएं शामिल है.

वर्तमान में होशंगाबाद की बस्ती में स्थित, नर्मदा के एक घाट पर, वह पिछले पांच वर्षों से जुनूनी रूप से पेंटिंग भी कर रही है। उनके पुरस्कारों में भारत भूषण स्मृति पुरस्कार, रज़ा फाउंडेशन फैलोशिप और केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय से वरिष्ठ फैलोशिप शामिल हैं। वह प्रेमचंद सृजन पीठ, उज्जैन में 1995 से 1997 तक लेखिका भी रहीं।

समीक्षकों के अनुसार सूक्ष्म और सघन ऐंद्रिकता उनकी कविताओं का विशेष गुण है जो उनके अनोखे जगत को आत्मीय और इंद्रिय-साध्य बनाता है और उनके रचना-संसार को कला-साध्य बनाता है। उनकी कविताओं को सार्वजनिकता, सामाजिकता, व्यापकता और विचारधारा के भीषण कोलाहल के बीच निजता के सुखद संपन्न मौन के लिए अवकाश रचती कविताएँ कहा गया है।

आइये देखते है तेजी ग्रोवर के कुछ चुनिंदा स्वरचित रचनाये!

"पूरा हो चुका चाँद"

पूरा हो चुका चाँद 
झर चुकी सेमल और टेसू की सुर्ख़ी 
कनक की पकती हुई लोच में 

महुआ की तीक-सी वह कभी-कभी दिख भी जाती है 
लंबे कश में बदल देती हुई इस दृश्य के ऐश्वर्य को 

फिर दिख जाती है कोई जुएँ बीनती हुई माँ 
नीले घर के उघड़े हुए काँधे की ओट में 

और लो 
वह गई वह नंग-धड़ंग भोर में उड़ती-पड़ती 
सूखे बालों के अनमने गोदुए में 
अंडों से लबालब भरी हुई। 

"प्रतीक्षा करो या न करो"

प्रतीक्षा करो 
या न करो 
कोई फ़र्क़ पड़ता है, भला 
वह रात के रहस्य में आती है तुम्हारे पास 
तुम्हारी चादर की सल में अपनी पाँखुड़ी को धीरे-धीरे खोल देती हुई 
तुम्हारे कानों की प्याली से अपनी ही गर्म साँस को पीती हुई— 
वह थक भी जाती है तुमसे 
तुम्हारे बिंबों और अक्सों और ध्वनियों से 
किन्हीं और उँगलियों को अपने फूलों की दहक से छूना चाहती है वह 
जो कोई और ही रूप देती हैं उसे 
आह रूप! 
जो चहुँ ओर तुम्हारा ही लिखा हुआ जान पड़ता है तुम्हें 
कहीं भी 
किसी भी छाती में बिंधा हुआ तीर 
दिशाओं में लरज रहा है तुम्हें टंकार देता हुआ 
तुम उतने ही दारिद्रय में हो 
उतने ही ऐश्वर्य में 
जितना तुम दे सकते हो स्वयं को— 
वह तुमसे थक कर भी 
तुम्हारे ही पास लौट आती है। 

"पर्वतों के नील से किसक रही है"

तब तो, उसकी प्रतीक्षा करते हुए मैं खो बैठूँगा उसे।
                              —काफ़्का

पर्वतों के नील से किसक रही है बर्फ़ की धूप नदी के मुख में। “मात्सुशिमा/ आह मात्सुशिमा/ मात्सुशिमा!” 
लुंसदाल से हल्की कूक के साथ आर्कटिक की सफ़ेद रात में टहल आती हैं ट्रेन की खिड़कियाँ। 
बौनों का और से और रूप धरते हैं उत्तर की ओर धीमे-धीमे भागते हुए पेड़। 
ध्रुवों के पानी होते श्वेत में अपनी भूख को लिए-लिए फिरते हैं बर्फ़ के चौपाए।

हो सकता है क्या इतने क़रीब से छूकर भी मैंने खो दिया हो उसे?

"वह रहे"

जिस भी सेमल की छींबी से उड़ती है वह 
जिस भी दूर्वा की ओस भरी लोच में नम 
जिस भी हरे साँप के नीचे से रेंग जाती है घास में 
जिस भी दुधमुँहे दाँत से काट लेती है कुचाग्र को 
जिस भी ईश्वर में घुलनशील है अनास्था की केंचुल में 
जिस भी पत्ती से क्षमा माँगती है कि आत्माएँ मर्त्य हैं 
जिस भी गर्भ में सुनती है व्यूह में प्रवेश की 
जिस भी नक्षत्र पर सवार वह निहारती है पितरों के श्वेत को 

वह रहे! 

अपने व्योम में स्वच्छ 
और पारभासी 

आए न आए यहाँ 
वह रहे! 

भाषा के साथ खेल सकते हो


भाषा के साथ खेल सकते हो 
(खेले भी हो ज़ार-ज़ार उसकी ध्वनियों और नुक़्तों से) 

क्या खेलोगे उससे भी—? 

उस परछाइयों के बुने नृत्य से 
साँसों की उस अन्यमनस्क माला से 
सुगंध से बहके हुए उस झोंके से 
जिसे सहेज नहीं सकती तुम्हारी पलकें 

मालती के वे फीके गुलाबी फूल 
नारंगी ग्रीवा से मुरझाते हुए वे पारिजात 
जासोन के वे सुर्ख़ घने बिंब जो तुम्हें चूमकर डूब जाते हैं साँझ में 
वह मत्स्या जो कन्या के भेस में तुम्हारे ममत्व को टंकार जाती है 
वह देही जो तुम्हारी देह में किसी मर्त्य गीत को गुनगुनाती है 
क्या खेलोगे उससे भी जिसे कभी-कभी कविता कह देते हो तुम? 

भाषा से खेल सकते हो! 

तेजी ग्रोवर द्वारा लिखित काव्य संग्रह एवं अन्य साहित्य

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